पिछले दिनों निजामाबाद की एक जनसभा में पीएम मोदी ने कहा कि ’केसीआर ने उनके समक्ष इच्छा व्यक्त की थी कि वे एनडीए में शामिल होना चाहते हैं। पर जवाब में मैंने उनसे कहा कि मोदी आपके साथ जुड़ नहीं सकते क्योंकि आपके कर्म ही कुछ ऐसे हैं।’ मोदी का यह बयान ठीक तेलांगना विधानसभा चुनाव से पहले आया है, जब विपक्ष लगातार केसीआर पर आरोप लगा रहा है कि ’वे अंदरखाने से भाजपा से मिले हुए हैं।’ इस बात का नुकसान भाजपा और बीआरएस इन दोनों दलों को हो रहा था, और मलाई कांग्रेस काट रही थी। हालिया जनमत सर्वेक्षणों में भी इस बात का खुलासा हो चुका है कि ’केसीआर की पार्टी को इस बार राज्य में भारी ‘एंटी इंकमबेंसी’ का सामना करना पड़ रहा है’, वहीं भाजपा जो ग्रेटर हैदराबाद में काफी मजबूत है, इस बार उसे वहां कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिल रही है। कांग्रेस के पास तेलांगना में 8-10 बड़े स्थानीय चेहरे हैं फिर भी उसे एक अदद रेड्डी चेहरे की तलाश है। सो, चुनाव के ऐन वक्त कांग्रेस जगन मोहन रेड्डी की बहन शर्मिला पर दांव लगा सकती है। वैसे भी केसीआर की लोकप्रियता इस हद तक गिरी है कि वहां के लोग इस बात को भूलने को भी तैयार बैठे हैं कि शर्मिला के स्वर्गीय पिता राजशेखर रेड्डी तेलांगना राज्य के गठन के सख्त खिलाफ थे।
’मेरे ख्वाबों के सफर में सिलवटों सा यहीं कहीं ठहर जाओ तुम
मैं दूर से तेरे पास आया हूं ऐसे ना छोड़ कर जाओ तुम’
सियासत की फितरत में ही अगर दगा शामिल है तो इस बात को मध्य प्रदेश के भगवा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से बेहतर और कौन जान सकता है, अठारह वर्षों तक मध्य प्रदेश के बेताज बादशाह रहने के बाद अब उनकी रुखसती की तैयारी है। अगर सिर्फ 15 महीने के कांग्रेस के शासन काल को छोड़ दें तो सबसे ज्यादा लंबे वक्त तक भगवा मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड भी उनके ही नाम है। जैसे-जैसे मध्य प्रदेश में भगवा जादू उतर रहा है, पार्टी ने शिवराज के चेहरे के बगैर चुनावी समर में उतरने का मन बना लिया है। हालिया थीम सांग-’मोदी मध्य प्रदेश के लिए, मध्य प्रदेश मोदी के लिए’ इसी बात की चुगली खाता है। चुनावी सीजन में जब राज्य में भाजपा की ’जन आशीर्वाद यात्रा’ भी फीकी रही तो पीएम मोदी ने मेन स्टेज पर आने का निर्णय सुना दिया। इस 25 सितंबर को भोपाल में मोदी की एक बड़ी रैली आहूत थी, पर मोदी ने मंच पर सीएम पद के अन्य चार उम्मीदवारों को भी विराजमान करा रखा था, मोदी ने अपने उद्बोधन में न तो सीएम शिवराज का नाम लिया और न ही उनकी किसी बड़ी सरकारी योजना का ही जिक्र किया। सीएम के प्रति पीएम की ‘बॉडी लैंग्वेज’ से आपसी समीकरणों के उतार-चढ़ाव को सहज समझा जा सकता था। रैली के अगले ही रोज शिवराज ने अपनी कैबिनेट की बैठक बुला ली, उसके तुरंत बाद अपने प्रमुख अधिकारियों की एक मीटिंग ले ली और उन सबका आभार भी जता दिया, सुनने वालों को ऐसा लगा मानो शिवराज अपनी ‘फेयरवेल स्पीच‘ दे रहे हों। सूत्र बताते हैं कि अगर इस बार शिवराज को सीएम पद की दावेदारी से मुक्त रखा गया तो वे 2024 में विदिशा लोकसभा सीट से अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं, पर कहते हैं कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने पहले से ही विदिशा से एक युवा चेहरे को मैदान में उतारने का मन बनाया हुआ है, बदलते वक्त की दीवारों पर लिखी इन इबारतों को शिवराज भी बखूबी पढ़ पा रहे हैं।
सोशल मीडिया पर भाजपा दिग्गज कैलाश विजयवर्गीय के उस दर्द से दुनिया रूबरू हो गई कि अचानक विधानसभा का टिकट मिल जाने से वे कितने असहज हैं। जबकि विजयवर्गीय 1990 से लेकर 2013 तक लगातार विधानसभा का चुनाव लड़े और कभी हारे नहीं। इंदौर-3 से पिछली बार उनके बेटे को टिकट दिया गया था और वह चुनाव जीत गया था, इस बार विजयवर्गीय को इंदौर-1 से चुनावी मैदान में उतारा गया है। कहां तो उनका इरादा राज्य के भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में मैराथन चुनाव प्रचार का था, पांच सभाएं रोजाना हेलीकॉप्टर से और तीन सभाएं कार से करने का इरादा था, अब वे इंदौर की गलियों की खाक छान रहे हैं, वे भी बाइक और स्कूटर पर बैठे नज़र आ रहे हैं। विजयवर्गीय यह कहते हुए यहां चुनावी प्रचार कर रहे हैं कि ’इस क्षेत्र में भोजन-भंडारे तो बहुत हुए, पर विकास के कार्य रूक गए हैं, वे जीते तो इनमें गति आएगी।’ कमोबेश कुछ यही हाल केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते का है, वे 38 साल बाद विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। रही बात केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की तो वे मुरैना के सांसद हैं, और चुनाव प्रबंधन समिति के संयोजक भी हैं, पहली बार है जब किसी संयोजक को ही चुनावी मैदान में उतार दिया गया है, यह भाजपा की बेचैनी बयां करता है। अब बात करें प्रह्लाद पटेल की तो वे 5 बार के सांसद हैं, वे शायद विधानसभा लड़ने का अनुभव भी भूल चुके हैं, इसी प्रकार भाजपा सांसद उदय प्रताप कोई 16 साल बाद विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। भाजपा सांसद रीति पाठक और गणेश सिंह पहली बार विधायकी का चुनाव लड़ेंगे। नरेंद्र सिंह तोमर को चुनावी मैदान में उतार कर भाजपा चंबल-ग्वालियर संभाग को साधना चाहती है, जो अभी तक सिंधिया परिवार का गढ़ रहा है। ग्वालियर-चंबल संभाग में कुल 34 सीटें हैं, 2018 के चुनाव में भाजपा इसमें से मात्र 7 सीटें ही जीत पाई थी, एक सीट बसपा के कब्जे में आयी थी, बाकी सीटें कांग्रेस के पाले में आ गई थी। इसी तरह महाकौशल का क्षेत्र भी भाजपा की पेशानियों पर बल ला रहा है, पिछले चुनाव में यहां की 38 में से 34 सीटें कांग्रेस ने जीत ली थी, इसीलिए भाजपा ने यहां के अपने तीनों सांसद यानी प्रह्लाद पटेल, फग्गन कुलस्ते और राकेश सिंह को मैदान में उतार दिया है। मालवा-निमाड़ की 66 में से 35 सीटें 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने जीत ली थी, 2020 में यहां के कई कांग्रेसी विधायकों ने पाला बदल लिया था। कांग्रेस इस बार बुंदेलखंड में बेहतर करना चाहती है, पिछले चुनाव में यहां की 26 में से मात्र 7 सीटों पर ही कांग्रेस जीत पाई थी।
पिछले कुछ महीनों में भाजपा अपनी ओर से लगातार यह प्रयास करती रही है कि बिहार में नीतीश व लालू की पार्टी के गठबंधन में कोई दरार आ जाए, शायद इसीलिए अमित शाह ने अपनी 16 सितंबर की रैली में नीतीश पर निशाना साधते हुए कहा भी-’लालू-नीतीश गठबंधन तेल पानी जैसा है।’ इससे पहले भी तीन लोग यानी हरिवंश, संजय झा और रामनाथ कोविंद नीतीश को भाजपा के पाले में लाने के लिए जुटे रहे, पर बात बनी नहीं। संजय झा व हरिवंश इस कार्य में जब फेल हो गए तो भगवा शीर्ष ने यह जिम्मेदारी फिर कोविंद को सौंप दी, कोविंद पटना गए, नीतीश के घर खाना खाया, पर नीतीश को मना नहीं पाए। बिहार में हो रहे तमाम चुनावी सर्वेक्षण इस बात की चुगली खा रहे हैं कि ’अगर लालू-नीतीश मिल कर लड़ते हैं और अगर इस गठबंधन को कांग्रेस जैसे दलों का साथ मिल जाता है तो यह बिहार में कमल के प्रस्फुटन के लिए खतरा हो सकता है।’ सो, अब भाजपा के हमलों पर नीतीश भी सीधी प्रतिक्रिया देने लग गए हैं, जैसे झंझारपुर रैली में अमित शाह की कही बातों पर कटाक्ष करते हुए नीतीश ने कहा-’वे कुछ भी बोलते हैं, मैं उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता।’ वहीं शाह पर पलटवार करते राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने कह दिया-’अमित शाह बनिया हैं, तेल पानी वही मिलाते होंगे।’ भाजपा बिहार को कितनी गंभीरता से ले रही है इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले एक साल में अमित शाह कम से कम 6 दफे बिहार का दौरा कर चुके हैं।
कहां तो पहले कयास लगाए जा रहे थे कि संसद के इस विशेष सत्र में रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट पेश होनी है। पर इस रिपोर्ट में एक झोल है कि कमीशन ने ओबीसी जातियों को भी पिछड़े व अति पिछड़े में सूचीबद्द कर दिया है, सो भाजपा इस माहौल में कोई अतिरिक्त रिस्क नहीं लेना चाहती थी। खास कर वैसे दौर में जब सुप्रीम कोर्ट व सीएजी जैसी संस्थाओं का भी तल्ख रवैया केंद्र सरकार को परेशान करने वाला है। पिछले कुछ समय में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के कई फैसलों को लेकर बेहद तल्ख टिप्पणियां की हैं। वहीं सीएजी की हालिया रिपोर्ट भी 2013-14 का वह दौर याद दिला रही है जब केंद्र में यूपीए नीत सरकार थी। सीएजी ने भी अपनी हालिया रिपोर्ट में सरकार की कई योजनाओं में व्याप्त गड़बड़ियों की ओर खुल कर इषारा किया है। इसमें आयुष्मान भारत, अयोध्या विकास प्राधिकरण व द्वारका एक्सप्रेस वे जैसी योजना शामिल हैं।
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अभी पिछले दिनों भारत में जी-20 शिखर सम्मेलन का एक सफल आयोजन हुआ, पर एक देश के प्रधानमंत्री ऐसे भी थे जिन्होंने भारत से अपनी नाराज़गी दिखाने में संकोच नहीं किया, बदले में भारत के प्रधानमंत्री की भंगिमाएं भी ’जैसे को तैसा’ का आभास दे रही थीं। भारत की जस्टिन ट्रूडो से नाराज़गी का अंदाजा इस बात से भी हो जाता है कि पीएम मोदी ने इस भव्य आयोजन में शिरकत करने वाले हर नेता का अपने साथ के स्वागत वीडियो को पोस्ट किया, पर इससे जस्टिन ट्रूडो महरूम रह गए। ट्रूडो के स्वागत का कोई नोट भी पीएम मोदी की तरफ से पोस्ट नहीं हुआ। दरअसल, कनाडा में चल रहे खालिस्तानी समर्थकों की गतिविधियों पर भारत ने सदैव गंभीर एतराज जताया है। इसकी प्रतिध्वनि कनाडा की ओर से भी सुनने को मिली जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा जी-20 के नेताओं के सम्मान में आयोजित रात्रि भोज में ट्रूडो आए ही नहीं। जब कनाडा के पीएम के विमान में कुछ तकनीकी खरीबी आ गई और उन्हें 30-32 घंटों तक मजबूरन भारत में ही रूकना पड़ा तो भारत ने अपनी ओर से उन्हें एक विशेष विमान की पेशकश भी की थी, पर ट्रूडो ने भारत के इस पेशकश को ठुकरा दिया।