मोदी की एक भूल

August 30 2015


अब ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि कभी आरक्षण के घोर विरोधी रहे पाटीदार पटेलों को आज अपने लिए आरक्षण की क्या जरूरत आ पड़ी है? दरअसल यह पूरा पटेल आंदोलन मोदी के ’एकला चलो’ राजनीति का एक ’बायोप्रोडक्ट’ माना जा सकता है, क्योंकि मोदी के राज्य की गद्दी से हटने के डेढ़ वर्षों में विकास के गुजरात माॅडल की कलई खुलती दिख रही है, अब अर्थशास्त्रियों को लगने लगा है कि इस पूरे विकास का स्वरूप रोजगार विहिनता माॅडल पर अवलंबित है, और अब तो गुजरात में कभी इस बात पर चर्चा ही नहीं होती कि गुजरात में ’एग्रीकल्चर ग्रोथ’ का क्या हश्र हुआ? दरअसल इन पाटीदार पटेलों की सबसे बड़ी निर्भरता कृषि कार्यों पर थी, पर जिस तरह गुजरात में कृषि योग्य भूमि का अकाल पड़ा है और ज्यादा से ज्यादा जमीनों को उद्योग समूहों को कल-कारखाने लगाने के नाम पर आबंटित किए गए हैं, उसी अनुपात में यह पटेल समुदाय में भी बेरोजगारी बढ़ी है, और हाल के वर्शों में इनका तेजी से नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन हुआ है, पर चूंकि इस समुदाय में शिक्षा का औसत इतना अच्छा नहीं है चुनांचे इन्हें नौकरियां भी बमुश्किल मिल रही है, सो हार्दिक पटेल की अगुवाई ने इस समुदाय ने आरक्षण के नए खटराग में अपना सुर मिलाया है।

 
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