कैप्टन की नई पार्टी से कांग्रेस की बल्ले-बल्ले

November 01 2021


’तेरी बेवफाइयों का हर इल्ज़ाम लेने दे मुझे
जिंदगी ने यूं भी बड़ा रुसवा किया है तुझे’

सबसे पहले इसी कॉलम में खुलासा हुआ था कि कांग्रेस से नाराज़ कैप्टन अपनी नई पार्टी का गठन कर सकते हैं और उनकी पार्टी का चुनावी तालमेल भाजपा के संग हो सकता है। नेपथ्य की इन खबरों ने जब अंगड़ाईयां लेनी शुरू की तो कांग्रेस की बांछे खिल आई, अगर कैप्टन सचमुच ऐसा कुछ करते हैं तो पंजाब में उसके लिए मैदान मारना आसान हो जाएगा। जैसा कि वहां 2012 के विधानसभा चुनावों में हुआ, जब अकाली सरकार में वित्त मंत्री के अहम ओहदे से नवाजे गए मनप्रीत बादल ने अपनी पार्टी से नाराज़ होकर एक नए दल का गठन कर लिया, सो सरकार विरोधी वोट कांग्रेस में जाने के बजाए मनप्रीत की पार्टी को चले गए और अकालियों ने दूसरी दफे लगातार पंजाब में अपना विजयी परचम लहरा दिया। ऐसा ही कुछ लालू यादव के साथ बिहार में भी हुआ था, 1990 के चुनाव में लालू के जनता दल को मात्र 122 सीटें आई थीं, तब कम्युनिस्ट 60-65 सीटें ले आए थे, जिनके समर्थन से लालू ने सरकार बना ली थी। 1995 आते-आते नीतीश कुमार-शकुनि चौधरी ने लालू से अलग होकर अपनी समता पार्टी बना ली और कुर्मी-कोइरी वोट अपने साथ ले गए। अगड़ों की राजनीति करने वाले आनंद मोहन ने भी लालू से टूट कर बिहार पीपुल्स पार्टी बना ली और अगड़े वोट अपने साथ ले गए। जब चुनावी नतीजे आए तो नीतीश को मात्र 5 सीटों से संतोश करना पड़ा, आनंद मोहन को एक सीट मिली और लालू की पार्टी ने 165 सीटें लाकर इतिहास रच दिया। वैसे भी कैप्टन अगर अपनी नई पार्टी के साथ मैदान में आते हैं तो उन्हें जट-सिख वोटों का ही आसरा रहेगा। इसी वोट बैंक पर शिरोमणि अकाली दल और आप की भी नज़र है। यानी इन वोटों में साफ तौर पर बंटवारा हो जाएगा, वहीं कांग्रेस ने प्रदेश में अपना दलित सीएम बना कर प्रदेश के 32 फीसदी दलित वोटों पर अपना दांव खेल दिया है, इसके अलावा पंजाब के 31 फीसदी ओबीसी वोटरों पर भी कांग्रेस की नज़र है, वहीं प्रदेश के तीन फीसदी मुस्लिम और ईसाई वोटर पहले से ही कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में शुमार होते हैं। यानी अगर कैप्टन की नई पार्टी सरकार विरोधी वोटों का केंद्र बनती है तो अगली बार प्रदेश में फिर से कांग्रेस का नंबर लग सकता है।

 
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