’सिर्फ जुगनूओं से दोस्ती पर आप क्यों इतना इतराते हैं
हम तो वो छांव हैं जो सौ-सौ सूरज को रोज़ आग लगाते हैं’
यह नए दौर की नई भाजपा है, ’पार्टी विद ए डिफरेंस’ का खटराग भगवा आस्थाओं पर जरूर चस्पां है, पर ’डिफरेंस’ से लैस असहमति वाले बोलों के लिए यहां शायद ही कोई जगह बची है। लखीमपुर खीरी में इसे सायरन बजाती एसयूवी से कुचला जाता है, और आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली इस पार्टी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाता है। गढ़ी ख़बरों से लोकतंत्र के नए नियामक गढ़ने वाले नियंताओं को ‘नोबल कमेटी’ से भी तो कुछ सीखना चाहिए, जब फर्जी खबरों के खिलाफ मुहिम चला कर जेल जाने वाली फिलीपींस की पत्रकार मारिया रेसा और रूस के दिमित्री मुरातोव को इस वर्ष के ‘नोबल शांति पुरस्कार’ के लिए चुन लिया जाता है, तो आंदोनरत किसानों की आवाज़ में आवाज़ मिलाने वाले वरूण गांधी, किसानों के साथ हमदर्दी रखने वाले बीरेंद्र सिंह, सोशल मीडिया पर अपनी पार्टी से तल्ख सवाल पूछने वाले सुब्रह्मण्यम स्वामी, वहीं मेनका गांधी, विजय गोयल, विजय कुमार मल्होत्रा, एसएस अहलूवालिया जैसे पार्टी दिग्गजों को तो उनका कुसूर मालूम ही नहीं है कि ’आखिरकार क्यों पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से उन्हें बाहर कर दिया गया।’ कविता संग्रह की अपनी हालिया पुस्तक ’स्टिलनेस’ की पहली कविता ’कंट्रोल’ में वरूण गांधी ने जैसे अपने इन्हीं दर्दों को अभिव्यक्ति दी है, अगर इस कविता का हिंदी तर्जुमा हो सका तो वह कुछ ऐसा हो सकता है-’युद्ध में नहीं हूं मैं, मैंने कहा अपने आप से, बंद मुट्ठियों में जकड़ी ये खामोशियां जैसे गहरी तंद्राओं से भिड़ने का ही इनाम हो, इन बेड़ियों के लिए मेरे हाथ ज्यादा ही कुछ लंबे हैं, पर तुम्हारी उदासियां बरअक्स उतर आई हैं मुझमें, भटका नहीं हूं मैं, इंतजार है शिकार होने का, जैसे ढल गया हूं मैं पीछा करते इन धूलकणों में, कितनी जिंदगानियां और पांव-पांव चलेंगे दर्दों की बारिश में, जैसे ऊंचाईयां छूने के हौसले पस्त पड़ गए हों।’ कवि हृदय वरूण को सियासत में एक कवि अटल बिहारी वाजपेयी ही लेकर आए थे। आज सियासत का विद्रूप चेहरा सबके सामने है, जन सरोकार इनके पांव की जूती है, जन आकांक्षाओं के इस नए निज़ाम को कितनी परवाह है, इतिहास गवाह है। नई सियासत की दुदुंभि फूंकने वाले वरूण गांधी को आज यकीनन नए साथी और नए रास्तों की तलाश है। महज़ 33 साल की उम्र में वे भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बन गए थे, बीते सात सालों से वे सियासी निर्वासन की पीड़ा झेलने को अभिशप्त हैं। रूरल इंडिया को आवाज देने वाली अपनी पुस्तक ’रूरल मेनिफेस्टो’ के बहाने वे अब गांव-गांव जाना चाहते हैं, और हाशिए पर खड़े उस आखिरी आदमी की आवाज की गूंज से लोकतंत्र की तासीर बदलना चाहते हैं। लोकतंत्र के माथे पर नई तारीख लिखनी चाहते हैं। कार्य दुरूह है, समय भीषण है, पर आग में तप कर ही तो सोना बाहर निकलता है।