’मेरे ख्वाबों के सफर में सिलवटों सा यहीं कहीं ठहर जाओ तुम
मैं दूर से तेरे पास आया हूं ऐसे ना छोड़ कर जाओ तुम’
सियासत की फितरत में ही अगर दगा शामिल है तो इस बात को मध्य प्रदेश के भगवा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से बेहतर और कौन जान सकता है, अठारह वर्षों तक मध्य प्रदेश के बेताज बादशाह रहने के बाद अब उनकी रुखसती की तैयारी है। अगर सिर्फ 15 महीने के कांग्रेस के शासन काल को छोड़ दें तो सबसे ज्यादा लंबे वक्त तक भगवा मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड भी उनके ही नाम है। जैसे-जैसे मध्य प्रदेश में भगवा जादू उतर रहा है, पार्टी ने शिवराज के चेहरे के बगैर चुनावी समर में उतरने का मन बना लिया है। हालिया थीम सांग-’मोदी मध्य प्रदेश के लिए, मध्य प्रदेश मोदी के लिए’ इसी बात की चुगली खाता है। चुनावी सीजन में जब राज्य में भाजपा की ’जन आशीर्वाद यात्रा’ भी फीकी रही तो पीएम मोदी ने मेन स्टेज पर आने का निर्णय सुना दिया। इस 25 सितंबर को भोपाल में मोदी की एक बड़ी रैली आहूत थी, पर मोदी ने मंच पर सीएम पद के अन्य चार उम्मीदवारों को भी विराजमान करा रखा था, मोदी ने अपने उद्बोधन में न तो सीएम शिवराज का नाम लिया और न ही उनकी किसी बड़ी सरकारी योजना का ही जिक्र किया। सीएम के प्रति पीएम की ‘बॉडी लैंग्वेज’ से आपसी समीकरणों के उतार-चढ़ाव को सहज समझा जा सकता था। रैली के अगले ही रोज शिवराज ने अपनी कैबिनेट की बैठक बुला ली, उसके तुरंत बाद अपने प्रमुख अधिकारियों की एक मीटिंग ले ली और उन सबका आभार भी जता दिया, सुनने वालों को ऐसा लगा मानो शिवराज अपनी ‘फेयरवेल स्पीच‘ दे रहे हों। सूत्र बताते हैं कि अगर इस बार शिवराज को सीएम पद की दावेदारी से मुक्त रखा गया तो वे 2024 में विदिशा लोकसभा सीट से अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं, पर कहते हैं कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने पहले से ही विदिशा से एक युवा चेहरे को मैदान में उतारने का मन बनाया हुआ है, बदलते वक्त की दीवारों पर लिखी इन इबारतों को शिवराज भी बखूबी पढ़ पा रहे हैं।
सोशल मीडिया पर भाजपा दिग्गज कैलाश विजयवर्गीय के उस दर्द से दुनिया रूबरू हो गई कि अचानक विधानसभा का टिकट मिल जाने से वे कितने असहज हैं। जबकि विजयवर्गीय 1990 से लेकर 2013 तक लगातार विधानसभा का चुनाव लड़े और कभी हारे नहीं। इंदौर-3 से पिछली बार उनके बेटे को टिकट दिया गया था और वह चुनाव जीत गया था, इस बार विजयवर्गीय को इंदौर-1 से चुनावी मैदान में उतारा गया है। कहां तो उनका इरादा राज्य के भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में मैराथन चुनाव प्रचार का था, पांच सभाएं रोजाना हेलीकॉप्टर से और तीन सभाएं कार से करने का इरादा था, अब वे इंदौर की गलियों की खाक छान रहे हैं, वे भी बाइक और स्कूटर पर बैठे नज़र आ रहे हैं। विजयवर्गीय यह कहते हुए यहां चुनावी प्रचार कर रहे हैं कि ’इस क्षेत्र में भोजन-भंडारे तो बहुत हुए, पर विकास के कार्य रूक गए हैं, वे जीते तो इनमें गति आएगी।’ कमोबेश कुछ यही हाल केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते का है, वे 38 साल बाद विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। रही बात केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की तो वे मुरैना के सांसद हैं, और चुनाव प्रबंधन समिति के संयोजक भी हैं, पहली बार है जब किसी संयोजक को ही चुनावी मैदान में उतार दिया गया है, यह भाजपा की बेचैनी बयां करता है। अब बात करें प्रह्लाद पटेल की तो वे 5 बार के सांसद हैं, वे शायद विधानसभा लड़ने का अनुभव भी भूल चुके हैं, इसी प्रकार भाजपा सांसद उदय प्रताप कोई 16 साल बाद विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। भाजपा सांसद रीति पाठक और गणेश सिंह पहली बार विधायकी का चुनाव लड़ेंगे। नरेंद्र सिंह तोमर को चुनावी मैदान में उतार कर भाजपा चंबल-ग्वालियर संभाग को साधना चाहती है, जो अभी तक सिंधिया परिवार का गढ़ रहा है। ग्वालियर-चंबल संभाग में कुल 34 सीटें हैं, 2018 के चुनाव में भाजपा इसमें से मात्र 7 सीटें ही जीत पाई थी, एक सीट बसपा के कब्जे में आयी थी, बाकी सीटें कांग्रेस के पाले में आ गई थी। इसी तरह महाकौशल का क्षेत्र भी भाजपा की पेशानियों पर बल ला रहा है, पिछले चुनाव में यहां की 38 में से 34 सीटें कांग्रेस ने जीत ली थी, इसीलिए भाजपा ने यहां के अपने तीनों सांसद यानी प्रह्लाद पटेल, फग्गन कुलस्ते और राकेश सिंह को मैदान में उतार दिया है। मालवा-निमाड़ की 66 में से 35 सीटें 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने जीत ली थी, 2020 में यहां के कई कांग्रेसी विधायकों ने पाला बदल लिया था। कांग्रेस इस बार बुंदेलखंड में बेहतर करना चाहती है, पिछले चुनाव में यहां की 26 में से मात्र 7 सीटों पर ही कांग्रेस जीत पाई थी।
भाजपा के 2019 के चुनावी घोषणा पत्र का एक अहम बिंदु था ‘समान नागरिक संहिता’ पर इसके लिए पहल हुई उत्तराखंड की भाजपा सरकार की ओर से। इस अधिनियम का मसौदा तैयार करने के लिए 27 मई 2022 को रंजना देसाई विशेषज्ञ कमेटी का गठन हुआ, इस कमेटी को 6 माह का समय दिया गया था और कयास लगाए जा रहे थे कि खींचतान कर यह कमेटी जून 2023 तक ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश कर देगी और इस अधिनियम को संसद के विशेष सत्र में पेश किया जा सकेगा। पर कमेटी की 63 बैठकें, 20 हजार लोगों से बातचीत और ढाई लाख मिले सुझावों के बाद भी कुछ ठोस नहीं हो सका। कमेटी का कार्यकाल दूसरी बार 27 सितंबर 2023 तक बढ़ा दिया गया था। अब फिर से तीसरी बार कमेटी के कार्यकाल को 6 महीनों के लिए और बढ़ा दिया गया है यानी अब कमेटी को 27 जनवरी 2024 तक का समय मिल गया है। अभी कमेटी ने प्राप्त सुझावों को छंटनी के लिए विधि आयोग को सौंप दिया है। विधि आयोग इसे कांट-छांट कर एक रिपोर्ट की शक्ल में वापिस इसे कमेटी को सौंप देगा और अब माना जा रहा है कि संसद के बजट सत्र में इस विधेयक को पटल पर रखा जा सकता है।
चौधरी देवीलाल की 110वीं जयंती को चौटाला परिवार ने कैथल में रैली की शक्ल में ‘सम्मान दिवस’ के रूप में मनाया। इस रैली को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया था जैसे यह विपक्षी गठबंधन इंडिया की रैली हो। सो, इसमें शामिल होने के लिए चौटाला परिवार ने खास तौर पर सोनिया व राहुल को न्यौता भेजा था, पर वे दोनों क्या कांग्रेस का कोई अदना नेता भी इस रैली में शामिल नहीं हुआ। जो आए उनके आने का कोई खास मतलब नहीं था, जैसे नेशनल कांफ्रेंस की ओर से फारूक अब्दुल्लाह, टीएमसी की ओर से डेरेक ओ ब्रायन, जदयू की ओर से केसी त्यागी, अकाली दल के सुखबीर बादल व आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद ’रावण’ शामिल हुए। नीतीश कुमार कह के भी नहीं आए, उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय जयंती पर एक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम का बहाना बना दिया। जबकि पिछले साल वे इसी तारीख को आयोजित फतेहाबाद रैली में शामिल हुए थे, फतेहाबाद रैली में तेजस्वी भी आ गए थे। कैथल रैली में ओम प्रकाश चौटाला ने अपने पुत्र अभय चौटाला को अपना वारिस घोषित कर दिया। दरअसल, कांग्रेस चौटाला परिवार के ‘इंडियन नेशनल लोकदल’ की ‘इंडिया’ गठबंधन में एंट्री नहीं चाहती है, क्योंकि हरियाणा में दोनों पार्टियों की रणभूमि एक है, और जाट वोटरों पर वर्चस्व की जंग भी इन्हीं दोनों पार्टियों में छिड़ी है। सो, जब इंडिया के पिछले मुंबई अधिवेशन में नीतीश अभय चौटाला को ले जाना चाहते थे तो राहुल ने इसके लिए तब साफतौर पर मना कर दिया था। राहुल को इस बात पर भी आपत्ति थी कि चौटाला परिवार के तार सुखबीर बादल से भी जुड़े हुए हैं जिन्हें अमित शाह का बेहद भरोसेमंद माना जाता है।
क्या दिल्ली के मौजूदा सांसदों को भी मध्य प्रदेश की तर्ज पर विधानसभा चुनावों में उतारा जा सकता है? भाजपा यह प्रयोग पहले भी त्रिपुरा व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में दुहरा चुकी है। छत्तीसगढ़ व राजस्थान में भी इस फार्मूले को आजमाया जा रहा है। सूत्रों की मानें तो भले ही रमेश बिधूड़ी को दानिश अली के खिलाफ कहे गए उनके अपशब्दों के इनाम के तौर पर पार्टी ने उन्हें टोंक का प्रभारी बना दिया हो, पर दिल्ली से सांसदी का उनका टिकट कटना तय माना जा रहा है। प्रवेश वर्मा का टिकट भी संकट में बताया जा रहा है, उनकी जगह भाजपा क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग को मैदान में उतार सकती है। मनोज तिवारी को लड़ने के लिए बिहार भेजा जा सकता है। गौतम गंभीर का भी टिकट कटना तय माना जा रहा है। मीनाक्षी लेखी के क्षेत्र का सर्वेक्षण का कार्य अभी भी जारी है, सर्वे रिपोर्ट आने के बाद ही भाजपा शीर्ष उनके भाग्य का फैसला कर सकता है।
Comments Off on दिल्ली के सांसद भी लड़ेंगे विधायकी का चुनाव
’हर नई ईंट पर बस तेरा ही नाम है इन ख्वाबों के मकानों में
कभी ख्वाहिशें बिकती थीं, अब वक्त बिकता है, इन दुकानों में’
जब भगवा आलोक में 18 से 22 सितंबर तक संसद के विशेष सत्र आयोजित करने की घोषणा हुई तो विपक्षी दलों को इस बात का किंचित भी इल्म नहीं था कि इस विशेष सत्र में आखिरकार होगा क्या? क्योंकि जब भी ऐसा कोई विशेष सत्र आहूत होता है तो तमाम पार्टियों से बात कर सत्तारूढ़ दल की ओर से एक कार्य सूची तैयार की जाती है। सो, नाराज़ होकर सोनिया गांधी ने पीएम को एक पत्र लिख डाला, और इसमें उन्होंने महंगाई, बेरोजगारी, चीन, अदानी जैसे 9 प्रमुख मुद्दों पर चर्चा की मांग कर दी। इस पर त्वरित कार्यवाई करते सरकार ने पोस्ट ऑफिस बिल, मीडिया संस्थानों के रजिस्ट्रेशन बिल, वरिष्ठ नागरिक कल्याण विधेयक, अधिवक्ता बिल समेत आठ विधेयकों की लिस्ट जारी की, जिन विधेयकों को इस विशेष सत्र में लाया जाना था। पर मोदी सरकार के तुरूप का इक्का महिला आरक्षण बिल का इसमें कोई जिक्र नहीं था। 5 दिन का यह विशेष सत्र चार दिनों में ही समाप्त हो गया, सत्र की शुरूआत 18 को पुराने संसद से हुई और अगले दिन 19 को कार्यवाई नए संसद भवन में शिफ्ट हो गई। इसी संसद में ’नारी शक्ति वंदन विधेयक’ पेश हुआ, 20 सितंबर को यह पारित भी हो गया। भाजपा इसे अपनी एक बड़ी जीत मान रही है, पर अब भाजपा के अंदर से ही महिला बिल में ओबीसी महिलाओं को आरक्षण दिए जाने की मांग उठने लगी है। यह मांग भी भाजपा की उस नेत्री उमा भारती ने उठा दिया है जिसे ’जन आशीर्वाद यात्रा’ का न्यौता ही नहीं भेजा गया। जिन्हें पार्टी ने न तो 2019 का चुनाव लड़ाया और न ही विधानसभा का। राहुल गांधी की ’भारत जोड़ो यात्रा’ का दूसरा चरण ज्यादातर हिंदी पट्टी से होकर गुजरने वाला है, जहां ओबीसी राजनीति का सिक्का चलता है, कांग्रेस ने हैदराबाद की अपनी सीडब्ल्यूसी की बैठक में खुल कर ओबीसी राजनीति का अलख जगा दिया है, पार्टी ने कहा है कि ’वह 50 फीसदी आरक्षण सीमा पर विचार करेगी।’ देश भर में 45 फीसदी के आसपास ओबीसी वोटर हैं, हिंदी पट्टी में तो यह प्रतिशत बढ़ कर 54 फीसदी तक जा पहुंचता है। जैसे बिहार में 61 प्रतिशत, राजस्थान में 48 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 45 फीसदी और मध्य प्रदेश में ओबीसी वोटरों की तादाद 43 फीसदी है। राहुल गांधी ने इसीलिए कर्नाटक चुनाव में जातिगत जनगणना की मांग उठाई थी, अब राहुल कह रहे हैं कि ’भारत सरकार के 90 सचिवों में से मात्र 3 ही ओबीसी समुदाय से आते हैं,’ यानी विपक्ष ने भविष्य की राजनीति के ’रोड मैप’ का अभी से खुलासा कर दिया है।
Comments Off on विशेष सत्र का ’विशेष एजेंडा’ सब पहले से तय था
पिछले कुछ महीनों में भाजपा अपनी ओर से लगातार यह प्रयास करती रही है कि बिहार में नीतीश व लालू की पार्टी के गठबंधन में कोई दरार आ जाए, शायद इसीलिए अमित शाह ने अपनी 16 सितंबर की रैली में नीतीश पर निशाना साधते हुए कहा भी-’लालू-नीतीश गठबंधन तेल पानी जैसा है।’ इससे पहले भी तीन लोग यानी हरिवंश, संजय झा और रामनाथ कोविंद नीतीश को भाजपा के पाले में लाने के लिए जुटे रहे, पर बात बनी नहीं। संजय झा व हरिवंश इस कार्य में जब फेल हो गए तो भगवा शीर्ष ने यह जिम्मेदारी फिर कोविंद को सौंप दी, कोविंद पटना गए, नीतीश के घर खाना खाया, पर नीतीश को मना नहीं पाए। बिहार में हो रहे तमाम चुनावी सर्वेक्षण इस बात की चुगली खा रहे हैं कि ’अगर लालू-नीतीश मिल कर लड़ते हैं और अगर इस गठबंधन को कांग्रेस जैसे दलों का साथ मिल जाता है तो यह बिहार में कमल के प्रस्फुटन के लिए खतरा हो सकता है।’ सो, अब भाजपा के हमलों पर नीतीश भी सीधी प्रतिक्रिया देने लग गए हैं, जैसे झंझारपुर रैली में अमित शाह की कही बातों पर कटाक्ष करते हुए नीतीश ने कहा-’वे कुछ भी बोलते हैं, मैं उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता।’ वहीं शाह पर पलटवार करते राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने कह दिया-’अमित शाह बनिया हैं, तेल पानी वही मिलाते होंगे।’ भाजपा बिहार को कितनी गंभीरता से ले रही है इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले एक साल में अमित शाह कम से कम 6 दफे बिहार का दौरा कर चुके हैं।
2015-16 में आदिवासी विकास योजना के तहत झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में सड़क चौड़ीकरण व इसकी मजबूती के लिए एक प्रोजेक्ट बना और यह कार्य एक निजी कंपनी ’रामकृपाल सिंह कंस्ट्रक्शन’ को आबंटित भी हो गया। इस प्रोजेक्ट में 84 एकड़ भूमि का अधिग्रहण भी होना था। पर भूमि का अधिग्रहण हुआ भी नहीं और अधिकारियों की मिली भगत से इस निजी कंपनी के लिए 67 करोड़ रूपयों की निकासी हो गई। और इसके चार साल बाद ग्रामीण क्षेत्र की इस सड़क के पूर्ण हो जाने का विज्ञापन भी अखबारों में प्रकाशित करा लिया गया। एक एक्टिविस्ट बीरबल बागे ने इस घपले की शिकायत राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में की, जिसकी सचिव झारखंड कैडर की 1988 बैच की आईएएस अलका तिवारी हैं। पर शिकायत कर्ता का दावा है कि उनकी शिकायत सरकारी फाइलों में कहीं दब कर रह गई है, अब बागे ने इस मामले का संज्ञान लेने के लिए पीएम से गुहार लगाई है।
Comments Off on सड़क बनी नहीं, 67 करोड़ का हो गया भुगतान
कहां तो पहले कयास लगाए जा रहे थे कि संसद के इस विशेष सत्र में रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट पेश होनी है। पर इस रिपोर्ट में एक झोल है कि कमीशन ने ओबीसी जातियों को भी पिछड़े व अति पिछड़े में सूचीबद्द कर दिया है, सो भाजपा इस माहौल में कोई अतिरिक्त रिस्क नहीं लेना चाहती थी। खास कर वैसे दौर में जब सुप्रीम कोर्ट व सीएजी जैसी संस्थाओं का भी तल्ख रवैया केंद्र सरकार को परेशान करने वाला है। पिछले कुछ समय में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के कई फैसलों को लेकर बेहद तल्ख टिप्पणियां की हैं। वहीं सीएजी की हालिया रिपोर्ट भी 2013-14 का वह दौर याद दिला रही है जब केंद्र में यूपीए नीत सरकार थी। सीएजी ने भी अपनी हालिया रिपोर्ट में सरकार की कई योजनाओं में व्याप्त गड़बड़ियों की ओर खुल कर इषारा किया है। इसमें आयुष्मान भारत, अयोध्या विकास प्राधिकरण व द्वारका एक्सप्रेस वे जैसी योजना शामिल हैं।
Comments Off on रोहिणी कमीशन पर भाजपा का ’यु-टर्न’
’मेरे हाथ बंधे हैं और मेरे हाथों में चमकती तलवार है
मेरी पीठ में खंजर धंसे हैं और सामने मेरा गुनहगार है’
आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद 5 साल से ईडी निदेशक के पद पर काबिज रहे केंद्र सरकार के दुलारे संजय मिश्रा की विदाई हो गई और उनकी जगह आईआरएस अधिकारी राहुल नवीन ने ली है। पर राहुल नवीन को प्रभारी निदेशक का दर्जा मिला है। इसका आशय यह निकाला जा सकता है कि मोदी सरकार की अभी भी ईडी के लिए एक पूर्णकालिक निदेशक की तलाश जारी है। ईडी, सीबीआई निदेशक, सीवीसी व डीजीपी के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही दो साल की मियाद तय की हुई है, पर संजय मिश्रा अब तलक सेवा विस्तार का लाभ उठाते आ रहे थे। चूंकि पूर्णकालिक निदेशक को सरकार दो साल से पहले बदल नहीं सकती शायद इसीलिए नवीन को ’प्रभारी’ का दर्जा मिला है, यानी वे पूरी तरह से केंद्र सरकार की रहमोकरम पर होंगे और सरकार जब चाहे उन्हें बदल सकती है। अब इस बाबत योगी सरकार की मिसाल ले लें तो मुकुल गोयल के बाद से ही योगी सरकार ने डीजीपी की जगह कार्यवाहक डीजीपी की परंपरा शुरू कर दी है, इस कड़ी में कई नाम आए, मसलन देवेंद्र सिंह चौहान, फिर आर.के.विश्वकर्मा और अभी यूपी के मौजूदा डीजीपी विजय कुमार भी बस कार्यवाहक हैं, इन्हें कभी भी चलता किया जा सकता है। अब बात करें केंद्र दुलारे व पूर्व ईडी निदेशक संजय मिश्रा की तो इन्हें सेंट्रल इकोनॉमिक इंटेलीजेंस ब्यूरो (सीईआईबी) का डायरेक्टर बनाने की तैयारी है। इस ब्यूरो की स्थापना 1985 में की गई थी, यह एक नोडल एजेंसी है, जो बड़े आर्थिक सौदों पर अपनी रिपोर्ट ईडी को सौंपती है। संजय मिश्रा के लिए चीफ इंवेस्टीगेशन ऑफिसर ऑफ इंडिया का एक नया पद सृजित करने के बारे में भी सरकार विचार कर रही है, पर इस पद को मनमाफिक व ताकतवर बनाने के लिए संसद में विधेयक पास कराना जरूरी होगा, सरकार इस बारे में भी विचार कर रही है।
Comments Off on क्या केंद्र सरकार की बीन पर नाचेंगे नवीन?