मजबूरी में गडकरी

November 27 2011


भगवा राजनीति में कॉरपोरेट शैली के प्र्रवत्तक राजनेता गडकरी सातवें आसमान पर हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने की अपनी इच्छा को सार्वजनिक कर भाजपा की अंदरूनी सियासत में तूफान ला दिया है। अब सवाल सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि वे अगला लोकसभा चुनाव नागपुर से लड़ेंगे या वर्धा से। नागपुर उनकी कर्मस्थली रही है। परचूनी के धंधे से लेकर पोस्टर चिपकाने का उपक्रम उन्होंने वहीं साधा है। गोया कि संघ का मुख्यालय भले ही नागपुर में रहा हो पर भाजपा कभी भी यहां से (1996 को छोड़कर) लोकसभा चुनावों जीत दर्ज नहीं करा पाई है। सो, राजनीति के चतुर सुजान गडकरी जानते हैं कि अगर उन्हें नागपुर से लड़ना है तो उन्हें कांग्रेसी दांव-पेंच आजमाने ही होंगे। यूं भी नागपुर से चुनाव लड़ना खासा महंगा उपक्रम है। आमजौर पर यहां प्रति चुनाव 6 से 7 करोड़ रुपए खर्च होते आए हैं लिहाजा सटोरियों ने अभी से इस बात पर सट्टा लगाना शुरू कर दिया है कि अगर गडकरी यहां से चुनाव लड़ते हैं तो थैली का मुंह और कितना खुलेगा? क्योंकि गडकरी थैली की बोली को समझते हैं और इसके प्रबंधन में भी उन्हें महारथ हासिल है। गडकरी जब भाजपा-शिवसेना की महाराष्ट्र सरकार में लोक निर्माण मंत्री थे तो इंफ्रास्ट्रक्चर की कई बड़ी योजनाएं लेकर नागपुर आए थे। पर नागपुर में गडकरी को मंझे कांग्रेसी नेता विलास मुत्तेमवार का सामना करना पड़ सकता है। लिहाजा उनकी नजर पास की वर्धा सीट पर भी है। जहां पिछले चुनाव में भाजपा के सुरेश वाघमारे दत्ता मेघे के हाथों चित हो गए थे। वैसे भी वाघमारे की गडकरी से कभी पटी नहीं और कांग्रेसी दत्ता मेघे गडकरी के अभिन्न मित्रों में से रहे हैं। और अभी हाल ही में दत्ता मेघे ने राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर सबको चौंका दिया। जानने वाले जानते हैं कि दत्ता ने यह कदम आखिरकार उठाया क्यों? सो, अगला लोकसभा चुनाव गडकरी के लिए एक निर्णायक पेनेल्टी किक के मानिंद है। उनका रूख, बॉडी लैंग्वेज भले ही नागपुर की ओर हो पार्टी में अपने चिरंतन विरोधियों को चकमा देते हुए दरअसल वे अपनी जीत का निर्णायक गोल तो वर्धा में ही दाग सकते हैं। यह उनकी अदा भी है और सियासी मजबूरी भी।

 
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