आजादी का वीत राग! |
August 15 2010 |
आजादी की एक सबसे पाक सुबह है यह, आज से कोई 63 बरस पहले इसी दिन अंग्रेजों की खौफजर्द गुलामी से लहुलुहान अपनी बोसीदा रूह को हमने आजाद किया था, तब इस आजादी की एक बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी हमने, आज आजादी की छह दशकों में ही हमने इसकी विराटता, उद्दातता और पवित्रता को अपने नापाक मंसूबों से कलुषित कर दिया है। इसे बौना बना दिया है। ‘…लहू-लहू हर मंजर है किसके हाथ में पत्थर है, पहला दिन है बारिश का, पानी घर के अंदर है।’ पानी सिर्फ घर के अंदर नहीं, यह तो अब सिर के ऊपर से बह रहा है। सुनते हैं कांग्रेसी राजमाता सोनिया गांधी भी देश के हालात से चिंतित हैं, आम भारतीयों के मानिंद देश के वजीरे आलम से बेतरह नाराज भी हैं, चूंकि हर गुजरते पल के साथ महंगाई और बेलगाम हुई जाती है, शासन और राज-काज की पारदर्शिता पहले से ही जार-जार है, अपनी रक्तिम आकांक्षाओं से लैस सियासदां रोज बरोज खून कर रहे हैं लोकतंत्र के भरोसे का, ऐसे में शासन तंत्र का बेमानी लगना या दिखना तो लाजिमी ही है। सो, पहलू में निजाम बदले जाने का शोर है और सुना तो यह भी जा रहा है कि आज आखिरी बार मनमोहन सिंह ने लाल किले की प्राचीर से तिरंगा लहराया है, उनकी रुखसती का आलम तय है आने-वाले तीन-चार महीनों में वे अपनी कुर्सी खाली करेंगे और आईएमएफ के बुलावे पर बिछ जाएंगे। अगर ऐसे में कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया तो फिर जन-आकांक्षाओं के उबाल का क्या होगा? क्या किसी और बिल्ली के भाग्य से टूटेगा छींका? क्या प्रणब मुखर्जी? पर उनमें और मनमोहन में फर्क ही क्या है? ना उम्र का और न नीतियों का। तो क्या फिर इस सियासी मृग-मरीचिका में सहज आभास बन कर उभरेगा कोई चिदंबरम? …’मर जाता है रोज कोई, मेरा जीना दूभर है और वक्त चुगकर ले जाएगा, ये जो तबस्सुम मेरे लब पर है…’ |
Feedback |